मध्य पूर्व (Middle East) का नाम आते ही दुनिया के सामने एक ऐसा क्षेत्र उभरता है जो दशकों से संघर्ष, युद्ध, और राजनीतिक उठा-पटक का गवाह रहा है। इस क्षेत्र में लंबे समय से इजरायल और अरब देशों के बीच रिश्ते तनावपूर्ण रहे हैं। लेकिन साल 2020 में एक ऐसा कदम उठाया गया जिसने सबको चौंका दिया — अब्राहम समझौता (Abraham Accords)।
इस समझौते की पहल अमेरिका ने की थी, और तब के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इसे एक ऐतिहासिक जीत बताया था। अब एक बार फिर, ट्रंप इस समझौते को लेकर चर्चा में हैं। सवाल ये है कि क्या वाकई अब्राहम समझौता मिडिल ईस्ट में स्थायी शांति ला सकता है? और क्या सभी अरब देश इस पहल का हिस्सा बनना चाहेंगे?
चलिए इस पूरे मुद्दे को सरल भाषा में, विस्तार से समझते हैं।
अब्राहम समझौता क्या है?
अब्राहम समझौता एक कूटनीतिक पहल है जिसका उद्देश्य इजरायल और अरब देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे वैमनस्य को समाप्त करना है। इसका मुख्य उद्देश्य है:
- संबंधों को सामान्य बनाना
- आपसी व्यापार और सहयोग बढ़ाना
- सुरक्षा और स्थायित्व को मजबूत करना
कैसे हुई शुरुआत?
इस समझौते की शुरुआत अमेरिका की मध्यस्थता में अगस्त 2020 में हुई थी। पहले चरण में तीन अरब देशों — संयुक्त अरब अमीरात (UAE), बहरीन और इजरायल — के बीच समझौता हुआ। बाद में मोरक्को और सूडान ने भी इजरायल को मान्यता देकर इस पहल को समर्थन दिया।
ट्रंप की भूमिका: एक व्यापारिक सोच या शांति की चाह?
डोनाल्ड ट्रंप हमेशा से अपने “डील मेकिंग” स्टाइल के लिए जाने जाते हैं। वे खुद को एक ऐसा नेता मानते हैं जो कठिन से कठिन समझौते करवा सकता है। उनके कार्यकाल में अब्राहम समझौता इसी सोच का परिणाम था।
ट्रंप की सोशल मीडिया पर अपील
हाल ही में ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म “Truth Social” पर कहा कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम खत्म हो चुका है, और अब समय है कि मिडिल ईस्ट के सारे देश अब्राहम समझौते से जुड़ें ताकि स्थायी शांति लाई जा सके।
उनकी यह टिप्पणी एक बार फिर इस मुद्दे को चर्चा में ले आई है।
क्यों खास है यह समझौता?
इस समझौते के जरिए इजरायल जैसे यहूदी देश और इस्लामिक अरब देश, जो दशकों से दुश्मन रहे हैं, अब आपस में दोस्ती की कोशिश कर रहे हैं। ये हैरान कर देने वाली बात है लेकिन इसके पीछे कई व्यावहारिक कारण भी हैं:
1. ईरान का डर
ईरान की बढ़ती ताकत और परमाणु कार्यक्रम ने कई अरब देशों को चिंता में डाल दिया है। इजरायल और कई अरब देश इस मोर्चे पर समान विचार रखते हैं।
2. अमेरिका का दबाव
अमेरिका, खासकर ट्रंप प्रशासन, अपने सहयोगियों पर दबाव डालता रहा है कि वे इजरायल को मान्यता दें।
3. आर्थिक लाभ
अगर अरब देश इजरायल से सीधे व्यापार शुरू करते हैं तो उन्हें तकनीक, सुरक्षा उपकरण, कृषि और इनोवेशन में फायदा हो सकता है।
कौन-कौन हैं अब तक इस समझौते के हिस्सेदार?
देश का नाम | इजरायल से संबंधों की स्थिति | वर्ष |
---|---|---|
संयुक्त अरब अमीरात | औपचारिक राजनयिक संबंध | 2020 |
बहरीन | औपचारिक राजनयिक संबंध | 2020 |
मोरक्को | राजनयिक संबंधों की बहाली | 2020 |
सूडान | संबंधों की बहाली की प्रक्रिया | 2020 |
सऊदी अरब क्यों नहीं जुड़ा अब तक?
ऐतिहासिक और धार्मिक कारण
- सऊदी अरब खुद को इस्लाम का केंद्र मानता है और फिलिस्तीन के मुद्दे पर उसका रुख बेहद सख्त है।
- जब तक फिलिस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा नहीं मिलता, सऊदी अरब इजरायल को मान्यता देने से हिचक रहा है।
लेकिन धीरे-धीरे बदल रहा है माहौल
हाल के वर्षों में, पर्दे के पीछे सऊदी अरब और इजरायल के बीच बातचीत होती रही है। ट्रंप की कोशिश है कि वे इस प्रक्रिया को सार्वजनिक रूप दें।
क्या सच में आएगी शांति?
चुनौतियां:
- हमास जैसे संगठन अभी भी इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते।
- 7 अक्टूबर 2023 को गाज़ा में हुआ हमला इसकी ताज़ा मिसाल है।
- फिलिस्तीन मुद्दा हल हुए बिना शांति अधूरी मानी जाएगी।
उम्मीद की किरण:
- कई अरब देशों की युवा पीढ़ी अब बदलाव चाहती है।
- व्यापार, तकनीक और पर्यटन के ज़रिए रिश्ते सुधर सकते हैं।
- अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की मध्यस्थता अहम हो सकती है।
भारत की भूमिका
भारत ने इस समझौते का समर्थन किया है और इजरायल-अरब देशों दोनों से अच्छे संबंध रखता है। भारत के लिए ये मौका है कि वह:
- ऊर्जा सुरक्षा को मजबूत करे
- व्यापार बढ़ाए
- मिडिल ईस्ट में अपनी रणनीतिक स्थिति मज़बूत करे
निष्कर्ष: क्या ट्रंप का सपना पूरा होगा?
अब्राहम समझौता एक ऐसी ऐतिहासिक पहल है जिसने यह दिखा दिया कि पुराने दुश्मन भी दोस्त बन सकते हैं, अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। डोनाल्ड ट्रंप का यह सपना बहुत हद तक साकार हुआ है लेकिन अभी भी रास्ता लंबा है।
फिलिस्तीन मुद्दा
अगर इस विवाद का कोई स्थायी समाधान नहीं निकला तो यह समझौता अधूरा ही रहेगा।
ट्रंप की दूसरी पारी?
अगर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बनते हैं, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि वे इस समझौते को और कितना आगे ले जाते हैं।